ओवर फिशिंग या ज्यादा मछली पकड़ना
मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है।
हाथ लगाओ डर जाती है, बाहर निकालो मर जाती है।।
आज मछलियों के बिना बहुत से लोगों का काम नहीं चल सकता है। विश्व वन्य कोष (WWF) का मानना है कि दुनिया भर में लगभग 3 अरब लोगों के लिए मछलियां और समुद्र में पलने वाले जीव प्रोटीन का बुनियादी स्रोत हैं। इंसान हजारों साल से मछलियां पकड़ते हैं और खाते रहे हैं यहां तक कि अब डॉक्टरों के द्वारा भी अच्छे पोषण के लिए हफ्ते में दो बार मछलियां खाने की सलाह दी जाती है। लेकिन बीते कुछ दशकों में हमने समुद्र से इतनी मछलियां पकड़ी हैं कि महासागर खाली होने लगे हैं इसी को ओवरफिशिंग कहते हैं। यानी की जरूरत से ज्यादा मछलियां पकड़ना ओवरफिशिंग कहलाता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कहती है कि सन 2018 में दुनिया भर में मछलियों का कुल उत्पादन 17.9 करोड़ टन रहा इनमें से 8.2 करोड़ टन मछलियां एक्वाकल्चर यानी फिश-फार्मा के द्वारा पैदा की गईं जबकि बांकी मछलियां महासागरों नदियों और झीलों से पकड़ी गई। समंदर से पकड़ी जाने वाली मछलियों की मात्रा साल दर साल बढ़ती जा रही है। सन सन 1950 में जहां 2 करोड़ टन मछलियाँ और समुद्री जीव पकड़े जाते थे वहीं सन 1990 में यह आंकड़ा बढ़कर 8 करोड़ टन हो गया अब वर्तमान में यह 9 से 10 करोड़ टन के बीच है। मछलियां पकड़ना आदिकाल से मनुष्य की जरूरत रही है अतः इसमें कोई बुरी बात नहीं है क्यों की महासागरों को इससे कोई नुकसान नहीं होता है लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब हम इतनी मछलिया समंदर में नहीं छोड़ रहे हैं कि वह प्रजनन करके अपनी संख्या को एक निश्चित स्तर पर बनाए रख पाए। यही नहीं मछलियां पकड़ने वाले जाल कई बार इतने बारीक होते हैं कि उनमें छोटी-छोटी मछलियां भी फस जाती हैं यानी कि प्रजनन की उम्र में पहुंचने से पहले वह मारी जाती है इसके अलावा कई ऐसे जीव भी जाल में फंस रहे हैं जिनकी मछुआरों को कोई जरूरत नहीं होती है जैसे कछुए और दूसरी प्रकार की मछलियां इसे बायकैच कहते हैं एक आंकड़े के अनुसार हर साल औसतन तीन करोड़ टन मछलियां अंत में बायकैच की श्रेणीं में आती हैं। समुद्र में मछलियों की संख्या के घटने का एक कारण गैरकानूनी फिशिंग भी है जो एक बड़ी वैश्विक समस्या है। गैर कानूनी फिशिंग के कारण उससे कहीं ज्यादा मछलियां पकड़ी जा रही हैं जितनी कोटे के तहत निर्धारित हैं। दुनिया भर में मछलियों का व्यापार सैकड़ों अरब डालर का है और इसमें ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी हासिल करने के लिए अलग-अलग देशों के बीच होड़ सी लगी रहती है। सरकारें अपनी मछली कंपनियों को खूब सब्सिडी देती हैं और कंपनियों का ध्यान ज्यादा से ज्यादा मछलियां पकड़ने पर और मुनाफा कमाने पर होता है और यही समस्या की जड़ है और इसी से ओवरफिशिंग की समस्या उत्पन्न होती है। विश्व व्यापार संगठन यानी WTO लगभग 20 साल से कोशिश कर रहा है कि फिशिंग कंपनियों को मिलने वाली सब्सिडी पर रोक लगे लेकिन अभी तक विभिन्न राष्ट्रों के बीच इस बारे में कोई सहमति नहीं बन पाई है। फिशिंग के लिए सबसे ज्यादा सब्सिडी चीन देता है उसके बाद यूरोपीय संघ अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान का नाम आता है। चीन अतीत में उसकी फिशिंग जहाजों को रोके जाने का विरोध करता रहा है तथा फिशिंग पर मिलने वाली सब्सिडी पर रोक लगाना बहुत हद तक चीन पर निर्भर है। चीन का कहना है कि वह इस बारे में जारी कोशिशों का हिस्सा बना रहेगा। यूरोपीय देशों के साथ जापान और कोरिया जैसे देश भी सब्सिडी रोकने के पक्ष में है परंतु अभी मामला कूटनीति में फंसा है लेकिन इस मामले में विश्व को तुरंत कदम उठाने होंगे क्योंकी सवाल यहां महासागरों में मौजूद मछलियों को ओवरफिशिंग से बचाने का है। ओवरफिशिंग से ना केवल महासागरों का इकोसिस्टम तहस-नहस हो रहा है बल्कि इससे करोड़ों लोगों के सामने खाने का संकट भी पैदा हो सकता है बहुत से लोगों की रोजी-रोटी जा सकती है अतः हमें एक ऐसे संधारणीय (सस्टेनेबल) तरीके की जरूरत है जिससे मछली खाने वालों की थाली भी भरी रहे और मछलियों से महासागर भी।
हिंद महासागर में शार्क और शंकुश मछलियों की आबादी में भारी गिरावट हो रही है। एक ताजा अध्ययन में हिंद महासागर क्षेत्र में वर्ष 1970 के बाद शार्क एवं शंकुश मछलियों की आबादी में 84.7 प्रतिशत तक की भारी गिरावट आने का पता चला है। कनाडा की सिमोन फ्रासेर यूनिवर्सिटी, ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटेर, ऑस्ट्रेलिया की जेम्स कुक यूनिवर्सिटी एवं चार्ल्स डार्विन यूनिवर्सिटी समेत दुनियाभर के कुछ अन्य प्रमुख शोध संस्थानों के संयुक्त अध्ययन में यह बात उभरकर आयी है। इस अध्ययन से प्राप्त आंकड़े हैरान करते हैं, जिसमें कहा गया है कि पिछले करीब 50 वर्षों के दौरान दुनियाभर में शार्क और शंकुश मछलियों की जनसंख्या में 71 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई है। इसका सीधा असर समुद्री पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ रहा है, और महासागरों में रहने वाले जीव विलुप्ति की कगार पर बढ़ रहे हैं। शार्क और शंकुश मछलियों की 31 में से 24 प्रजातियां अब संकटग्रस्त प्रजातियों की सूची में आ गई हैं। समुद्र में पायी जाने वाली ओसेनिक वाइटटिप और ग्रेट हैमरहेड शार्क पर भी संकट गहराता जा रहा है। पिछले करीब 50 वर्षों के दौरान दुनियाभर में शार्क और शंकुश मछलियों की जनसंख्या में 71 फीसदी की गिरावट हुई है। इसका सीधा असर समुद्री पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ रहा है, और महासागरों में रहने वाले जीव विलुप्ति की कगार पर बढ़ रहे हैं। शार्क और शंकुश मछलियों की 31 में से 24 प्रजातियां अब संकटग्रस्त प्रजातियों की सूची में आ गई हैं। समुद्र में पायी जाने वाली ओसेनिक वाइटटिप और ग्रेट हैमरहेड शार्क पर भी संकट गहराता जा रहा है।अध्ययन में पता चला है कि हिंद महासागर जैसे उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में ये समुद्री जीव द्रुत गति से विलुप्त हो रहे हैं। हिंद महासागर में शार्क एवं शंकुश मछलियों की आबादी में गिरावट के लिए इस क्षेत्र में अत्यधिक मछली पकड़े जाने को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1970 से अब तक मछली पकड़ने पर दबाव 18 गुना बढ़ा है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि समुद्र में अत्यधिक मछली पकड़े जाने के कारण मछलियों की आबादी हमेशा के लिए खत्म हो सकती है। शोधकर्ताओं का कहना यह भी है कि समुद्र की पहचान कहे जाने वाले इन जीवों को विलुप्त होने से बचाने के लिए समय रहते प्रभावी उपाय किये जाने आवश्यक हैं। समुद्री मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि अगर तत्काल रूप से प्रभावी कदम नहीं उठाए जाते, तो बहुत देर हो जाएगी। जहां शार्क जैसी मछलियों को समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के लिए बेहद अहम माना जाता है वहीं ओवरफिशिंग के कारण उनके लिए विषम परिस्थिति उत्पन्न हो गई है। पर्यावारण के जानकारों ने तो यहां तक चेतावनी दे दी है कि अगर जल्द ही इस क्षेत्र में कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए तो वह दिन दूर नहीं जब समुद्र में मछलियाँ पूरी तरह खत्म हो जाएंगी। इससे पूरा पर्यावरण गड़बड़ा जाएगा। जिस तरह हमारी दुनिया में घर व बाहर की साफ-सफाई का जिम्मा इंसानों के अलावा कुछ जानवरों पर भी होता है, ठीक वैसे ही पानी की दुनिया में सफाई कर्मियों की भूमिका मछलियाँ ही निभाती हैं। मछलियाँ न सिर्फ पानी के भीतर मौजूद कचरे को कम करती हैं बल्कि मृत हो चुके अन्य जीवों को खाकर पानी को सड़ने से बचाने में भी विशेष योगदान देती हैं। पानी के भीतर उपस्थित जीवन चक्र को संरक्षित रखने में मछलियों का योगदान अधिकतम होता है। ऐसे में अगर पानी के भीतर की दुनिया की यह रानी पूरी तरह खत्म हो जाएगी तो आने वाले समय में समुद्र दुनिया की सबसे प्रदूषित जगहों में से एक बन जाएगा। ऐसा होने पर इसका सबसे ज्यादा असर उन दूसरे जीवों पर भी पड़ेगा जो जल के बिना जीवित नहीं रह सकते हैं। इसके अलावा इंसान भी इससे अछूता नहीं रहेगा। हमारी 50 फीसदी से ज्यादा जरूरतें समुद्र से ही पूरी होती हैं। इसके पूरी तरह प्रदूषित हो जाने के बाद भी क्या हम इसका दोहन अपनी जरूरतों के लिए कर पाएंगे, शायद नहीं। कुछ समय पहले कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने 53 राष्ट्रों के फिशरीज इंडस्ट्री पर एक तुलनात्मक अध्ययन किया। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य था ऐसे देशों की तलाश करना जहां मछलियों का कम से कम दोहन किया जाता हो, लेकिन हैरानी की बात यह थी कि अध्ययन में एक भी ऐसा राष्ट्र नहीं मिल पाया जहां समुद्र, छोटी नदियों या तालाबों से मछलियों को व्यापार के लिए बड़ी मात्रा में न पकड़ा जाता हो। मछलियाँ पकड़ने का व्यापार सबसे ज्यादा चीन वा उत्तरी अमेरिका में होता है। उत्तरी अमेरिका में तो इस समय पूरी दुनिया की 30 प्रतिशत फिशरी इंडस्ट्री मौजूद है। प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने के लिए यूरोपीय यूनियन ने फिशरी मैनेजमेंट के तहत कॉमन फिशरी पॉलिसी बना रखी है। इस पॉलिसी के तहत हर देश की एक निश्चित समुद्री सीमा निर्धारित की गई है। हालाकि ओवरफिशिंग पर सरकारों के बीच होने वाली खींचतान से परे आप अपने स्तर पर भी कोशिश कर सकते हैं जैसे आपको पता होना चाहिए कि कौन से सीजन में कौन सी मछली खानी है और कौन सी नहीं खानी है क्योंकि विशेष मछलियां विशेष सीजन में प्रजनन करती हैं अतः यदि उस समय उन्हें नहीं पकड़ा जाए तो इस समस्या से काफी हद तक निपटा जा सकता है तथा समुद्र को कूड़े से बचा कर मछलियों को फलने के लिए साफ सुथरा वातावरण दिया जा सकता है।
Great sir
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