प्रवाल भित्तियां (coral-reefs)

प्रवाल भित्तियाँ या प्रवाल शैल-श्रेणियाँ




प्रवाल भित्ती (coral reef) क्या है?


           प्रवाल भित्ती समुद्र के भीतर स्थित एक प्रकार कि चट्टान हैं जो प्रवाल नामक समुद्री जीव द्वारा छोड़े गए कैल्सियम कार्बोनेट से निर्मित होती है। इन्हें प्रवाल शैल या मूंगा चट्टान भी कहते हैं वस्तुतः ये इन छोटे-छोटे जीवों (प्रवालों) की बस्तियाँ होती हैं जो वर्षों से एक के ऊपर एक जमते जमते बड़े द्वीप का आकार ले लेती हैं जिन्हें प्रवाल द्वीप कहते हैं साधारणत: प्रवाल शैल-श्रेणियाँ, उष्ण एवं उथले जल वाले सागरों मे पाई जाती हैं।
        प्रवाल भित्ति या या मूंगे की चट्टानें उथले पानी की कटिबंधीय सामुद्रिक पारिस्थितिकी प्रणालिया हैं। उच्च जैव-मास उत्पादन एवं  समृद्ध वनस्पति व जीव जंतुओं की विविधता इनकी विशेषता होती है। भारतीय उपमहाद्वीप में इन मूगे की चट्टानों को पूर्वी और पश्चिमी तटों के साथ बांटा गया है। मन्नार की खाड़ी और पाक की खाड़ी में तथा अंडमान निकोबार दीप समूह में कोरल रीफ पाई जाती हैं। संरक्षण के लिए चार भित्तियों की पहचान की गई है यह हैं मन्नार की खाड़ी अंडमान और निकोबार समूह लक्ष्य दीप समूह और कच्छ की खाड़ी मंत्रालय ने हिंद महासागर में अंतरराष्ट्रीय कोरल रीफ इनीशिएटिव और वैश्विक कोरल रीफ निगरानी तंत्र और कोरल रीफ डिग्रेडेड कार्यवाही को केंद्र बिंदु भी माना है। यूनेस्को के जैव मंडल आरक्षित क्षेत्रों की विश्व सूची में तमिलनाडु के मन्नार की खाड़ी के प्रवाल भित्ति क्षेत्र को भी शामिल कर लिया गया है।

कोरल रीफ मछलियों और अन्य समुद्री जीवों के लिये ‘नर्सरी’ का काम करती है, यानी कि यहां मछली जैसे समुद्री जीवों का प्रारंभिक विकास होता है और इन भित्तियों में ही इनको भोजन सुरक्षा और आवास प्राप्त होता है। कोरल रीफ देखने मे रंग बिरंगी अत्यन्त खूबसूरत होने के कारण समुद्री पर्यटन के लिये आकर्षण का केंद्र होते हैं तथा इन भित्तियों को ‘महासगारों का वर्षावन’ भी कहते हैं, क्योंकि ये समुद्री जैव विविधता के भंडार होते हैं, अतः श्पष्ट है कि समुद्री जैव विविधता को बनाये रखने के लिए इनका संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है।


प्रवाल भित्ति के प्रकार:

तटीय प्रवाल भित्ति (fringing reef) महाद्वीपीय या द्विपीय तट से लगे प्रवाल भित्तियों को तटीय प्रवाल भित्ति कहा जाता है। सामान्यतया इस प्रकार की भित्तियां तब से सटी रहती हैं परंतु कभी-कभी इनके एवं स्थल भाग के बीच एक अंतराल (लैगून) निर्मित हो जाता है जिसे बोट चैनल कहा जाता है। भित्तियों का यह प्रकार दक्षिणी फ्लोरिडा, अंडमान एवं निकोबार, मन्नार की खाड़ी के निकट रामेश्वरम वा सोसायटी दीप समूह आदि स्थानों पर पाया जाता है।

वलयाकार प्रवाल भित्ति (Attoll) यह प्रवाल भित्ति अंगूठी या घोड़े के नाल की आकृति वाली होती है इनके केंद्र में लैगून होता है। इनके बीच बीच में खुले भाग पाए जाते हैं जिस कारण लैगून एवं समुद्र का जल आपस में मिला होता है। इस प्रकार की भित्ति का प्रमुख उदाहरण फिजी एटॉल तथा एलिस द्वीप में फुनाफूटी एटॉल हैं। भारत के लक्ष्य दीप समूह में भी कुछ एटॉल पाए जाते हैं।

अवरोधक प्रवाल भित्ति (barrier reef) इस प्रकार की प्रवाल भित्ति उपरोक्त दोनों प्रकार की प्रवाल भित्तियों की तुलना में विशाल होती है इनका विकास तट के समानांतर होता है विश्व की सबसे बड़ी अवरोधक प्रवाल भित्ति आस्ट्रेलिया के उत्तर पूर्वी तट पर स्थित ग्रेट बैरियर रीफ है।


प्रवालों के निर्माण के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ:


  • प्रवाल अधिकांश रूप से उष्णकटिबंधिय समुद्री क्षेत्र में पाए जाते हैं, क्योंकि इनके जीवित रहने के लिये 20°C - 21°C तापक्रम की आवश्यकता होती है।

  • प्रवाल कम गहरे समुद्र में पाए जाते हैं। ये 200-250 फीट से अधिक की गहराई में मर जाते हैं, क्योंकि प्रवालों को पर्याप्त ऑक्सीजन तथा सूर्य का प्रकाश नहीं मिलता।

  • प्रवालों के समुचित विकास के लिये स्वच्छ जल आवश्यक है, क्योंकि अवसादों के कारण प्रवालों का मुख बंद हो जाता है और वे मर जाते हैं।

  • अत्यधिक सागरीय लवणता प्रवाल के विकास मे बाधक होती है। 27-30% सागरीय लवणता इसके विकास के लिये उपयुक्त होती है।

  • सागरीय धाराएँ प्रवालों के लिये लाभदायक होती हैं क्योंकि ये प्रवालों के लिये भोजन उपलब्ध कराती हैं। इसी कारण बंद सागरों में प्रायः कम प्रवाल पाए जाते हैं।

प्रवालों की उपलब्धता:


        विश्व भर मे सर्वाधिक प्रवाल हिंद-प्रशांत क्षेत्र में पाए जाते हैं। ये भूमध्य रेखा के 30 डिग्री तक के क्षेत्र (उष्णकटिबंध 30⁰ North - 30⁰ South) में पाए जाते हैं। विश्व भर में पाए जाने वाले कुल प्रवालों का लगभग 30% भाग दक्षिण-पूर्वी एशिया क्षेत्र में पाया जाता है। यहाँ प्रवाल दक्षिणी फिलिपींस से पूर्वी इंडोनेशिया और पश्चिमी न्यू गिनी तक पाए जाते हैं। प्रशांत महासागर में स्थित माइक्रोनेशिया, वानुआतु, पापुआ न्यू गिनी में भी प्रवाल पाए जाते हैं। भारतीय समुद्री क्षेत्र में मन्नार की खाड़ी, लक्षद्वीप और अंडमान-निकोबार आदि द्वीप भी प्रवालों से निर्मित हैं। ये प्रवाल लाल सागर और फारस की खाड़ी में भी पाए जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर स्थित ग्रेट बैरियर रीफ एक बड़ी और प्रमुख अवरोधक प्रवाल भित्ति है। यह ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी-पूर्वी तट के समांतर बनी हुई, विश्व की यह सबसे बड़ी मूँगे की दीवार है। इसे पानी का बगीचा भी कहते हैं। मूगे की इस दीवार की लंबाई लगभग 1,200 मील तथा चौड़ाई 10 मील से 90 मील तक है। यह रीफ कई स्थानों पर खंडित है एवं इसका अधिकांश भाग जलमग्न है, परंतु कहीं-कहीं जल के बाहर भी स्पष्ट दिखाई देती है। मूगे की यह रंगीन दीवार दुनिया के लिए प्रमुख पर्यटन का केन्द्र है।


प्रवाल विरंजन:


       जब समुद्र मे तापमान, प्रकाश, या पोषक जैसी स्थिति में असंतुलन होता है तब प्रवालों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे वे अपने ऊतकों में रहने वाले सहजीवी शैवालों (जूजैंथिली) को त्याग देती हैं जिसके कारण प्रवाल पूरी तरह से विरंजित (पूरी तरह सफेद) हो सकते हैं, इस घटना को प्रवाल विरंजन या कोरल ब्लीचिंग कहते हैं।
         जब प्रवाल विरंजन होता है तो यह पूरी तरह नही मरता है अर्थात प्रवाल, विरंजन के दौरान भी जीवित रहता हैं लेकिन यह अत्यधिक संकटग्रस्त और मृत्यु के निकट रहता है। प्रवाल एक बार विरंजित हो जाने के पश्चात भूखा हो जाता है। हालांकि कुछ प्रवाल खुद खाने के लिए सक्षम हो जाते हैं लेकिन अधिकतर प्रवाल सूक्ष्म शैवाल (zooxanthellae)  के बगैर जीवित रहने के लिए संघर्ष करते हैं। यदि स्थिति सामान्य हो जाती है तो प्रवाल अपने सूक्ष्म शैवाल को हासिल कर अपने सामान्य रंग में लौट आते हैं। यदि दवाब बना रहता है तो विरंजित प्रवाल मर जाते है। वह प्रवाल भित्तियां जिनकी मृत्यु दर अधिक है उन्हें विरंजन के बाद ठीक होने में दशकों लग जाते हैं।
         प्रवाल विरंजन का कारण: प्रवाल विरंजन का प्रमुख कारण समुद्र के तापमान मे बृद्धि है। केवल एक माह के लिए केवल एक ही डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि विरंजन घटनाओं को गति प्रदान कर सकती है। यदि यह तापमान लंबी अवधि तक जारी रहता है तो प्रवालों के मरने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। पानी का उच्च तापमान क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर भित्तियों को प्रभावित कर सकता है। अन्य प्रतिकूलता भी विरंजन का कारण हो सकती है। जिसमें ताजे पानी का सैलाब होने से कम लवणता उत्पन्न होना, और तलछटों या प्रदूषक क्षेत्रों में पानी की कमजोर गुणवत्ता, पानी के तापमान में कमी या वृद्धि होना, अत्यधिक मछली मारने के कारण प्राणीमन्दप्लवक स्तर में गिरावट की वजह से पोषण की अपर्याप्तता, सौर विकिरण में वृद्धि होना, पानी के रसायनिक गुणों में परिवर्तन, गाद अपवाह के कारण बढ़ा हुआ अवसादन, जीवाण्विक संक्रमण, लवणता में परिवर्तन, साइनाइड द्वारा मछली पकड़ना, ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र का जल स्तर ऊंचा उठना आदि।

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